होती न हम को साया-ए-दीवार की तलाश
लेकिन मुहीत-ए-ज़ीस्त बहुत तंग रह गया
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वो महफ़िलें वो मिस्र के बाज़ार क्या हुए
हमें ख़बर है कि हम हैं चराग़-ए-आख़िर-ए-शब
इस दौर-ए-आफ़ियत में ये क्या हो गया हमें
बर्क़-ए-ज़माना दूर थी लेकिन मिशअल-ए-ख़ाना दूर न थी
वो बज़्म से निकाल के कहते हैं ऐ 'ज़हीर'
आरिज़-ए-शम्अ' पे नींद आ गई परवानों को
उन्हीं की हसरत-ए-रफ़्ता की यादगार हूँ मैं
आँधियाँ उट्ठीं फ़ज़ाएँ दूर तक कजला गईं
अब मिरी याद को दामन की हवाएँ देना
शब-ए-ग़म याद उन की आ रही है
अहल-ए-दिल मिलते नहीं अहल-ए-नज़र मिलते नहीं
वो इक झलक दिखा के जिधर से निकल गया