उन्हीं की हसरत-ए-रफ़्ता की यादगार हूँ मैं
जो लोग रह गए तन्हा भरी बहारों में
Rahat Indori
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Faiz Ahmad Faiz
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Mohsin Naqvi
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Habib Jalib
Wasi Shah
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हवा-ए-हिज्र चली दिल की रेगज़ारों में
मिरा ही बन के वो बुत मुझ से आश्ना न हुआ
दिल मर चुका है अब न मसीहा बना करो
कोई दस्तक कोई आहट न शनासा आवाज़
मरना अज़ाब था कभी जीना अज़ाब था
सीरत न हो तो आरिज़-ओ-रुख़्सार सब ग़लत
हम ने अपने इश्क़ की ख़ातिर ज़ंजीरें भी देखीं हैं
बढ़ गए हैं इस क़दर क़ल्ब ओ नज़र के फ़ासले
तन्हाइयों में आती रही जब भी उस की याद
कुछ बस न चला जज़्बा-ए-ख़ुद-काम के आगे
शब-ए-ग़म याद उन की आ रही है