वो इक झलक दिखा के जिधर से निकल गया
वो इक झलक दिखा के जिधर से निकल गया
इतनी तपिश बढ़ी कि ज़माना पिघल गया
अब दिल से कुछ कहो तो ये दिल मानता नहीं
ऐ इल्तिफ़ात-ए-यार तेरा वार चल गया
हर बज़्म उस निगाह के गिर्दाब में रही
हर दौर उस मिज़ाज के साँचे में ढल गया
अब तो जुनूँ भी उस की तरफ़ खींचता नहीं
अंधा रफ़ीक़-ए-कार भी आँखें बदल गया
वो दूर था तो हिज्र की गर्मी से थे निढाल
वो आ गया तो हिज्र का मौसम निकल गया
सूने पड़े हैं दिल के दर-ओ-बाम ऐ 'ज़हीर'
लाहौर जब से छोड़ के जान-ए-ग़ज़ल गया
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