बर्क़-ए-ज़माना दूर थी लेकिन मिशअल-ए-ख़ाना दूर न थी
हम तो 'ज़हीर' अपने ही घर की आग में जल कर ख़ाक हुए
Javed Akhtar
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सूने पड़े हैं दिल के दर-ओ-बाम ऐ 'ज़हीर'
तू मिरी ज़ात मिरी रूह मिरा हुस्न-ए-कलाम
हवा-ए-हिज्र चली दिल की रेगज़ारों में
शब-ए-ग़म याद उन की आ रही है
बड़े दिल-कश हैं दुनिया के ख़म ओ पेच
हमराह लुत्फ़-ए-चश्म-ए-गुरेज़ाँ भी आएगी
मुझ से बिछड़ कर पहरों रोया करता था
हर रोज़ ही इमरोज़ को फ़र्दा न करोगे
कोई दस्तक कोई आहट न शनासा आवाज़
दिल भी सनम-परस्त नज़र भी सनम-परस्त
फ़िराक़-ए-यार के लम्हे गुज़र ही जाएँगे
इस दौर-ए-आफ़ियत में ये क्या हो गया हमें