आह ये महकी हुई शामें ये लोगों के हुजूम
दिल को कुछ बीती हुई तन्हाइयाँ याद आ गईं
Wasi Shah
Rahat Indori
Allama Iqbal
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Ahmad Faraz
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Faiz Ahmad Faiz
Habib Jalib
Anwar Masood
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मिरा ही बन के वो बुत मुझ से आश्ना न हुआ
बर्क़-ए-ज़माना दूर थी लेकिन मिशअल-ए-ख़ाना दूर न थी
मैं हूँ वहशत में गुम मैं तेरी दुनिया में नहीं रहता
हिज्र ओ विसाल की सर्दी गर्मी सहता है
फ़र्ज़ बरसों की इबादत का अदा हो जैसे
तिरी चश्म-ए-तरब को देखना पड़ता है पुर-नम भी
कितना दिलकश है तिरी याद का पाला हुआ अश्क
बढ़ गए हैं इस क़दर क़ल्ब ओ नज़र के फ़ासले
इश्क़ जब तक न आस-पास रहा
तू अगर ग़ैर है नज़दीक-ए-रग-ए-जाँ क्यूँ है
हमें ख़बर है कि हम हैं चराग़-ए-आख़िर-ए-शब