हमारे इश्क़ से दर्द-ए-जहाँ इबारत है
हमारा इश्क़ हवस से बुलंद-ओ-बाला है
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हर रोज़ ही इमरोज़ को फ़र्दा न करोगे
बर्क़-ए-ज़माना दूर थी लेकिन मिशअल-ए-ख़ाना दूर न थी
इश्क़ इक हिकायत है सरफ़रोश दुनिया की
जब ख़ामुशी ही बज़्म का दस्तूर हो गई
आह ये महकी हुई शामें ये लोगों के हुजूम
शब-ए-महताब भी अपनी भरी-बरसात भी अपनी
सूने पड़े हैं दिल के दर-ओ-बाम ऐ 'ज़हीर'
वो इक झलक दिखा के जिधर से निकल गया
तमाम उम्र तिरी हम-रही का शौक़ रहा
परवाना जल के साहब-ए-किरदार बन गया
हैं बज़्म-ए-गुल में बपा नौहा-ख़्वानियाँ क्या क्या