बिछड़ Poetry (page 4)

सिलसिले ये कैसे हैं टूट कर नहीं मिलते

रउफ़ ख़लिश

वो ख़ुश-सुख़न तो किसी पैरवी से ख़ुश न हुआ

रऊफ़ ख़ैर

लोग कि जिन को था बहुत ज़ोम-ए-वजूद शहर में

राशिद मुफ़्ती

यूँ न बेगाना रहो गीत सुनाती है हवा

राशिद अनवर राशिद

ज़ाद-ए-सफ़र

राशिद आज़र

सदियों से मैं इस आँख की पुतली में छुपा था

रशीद क़ैसरानी

सदियों से मैं इस आँख की पुतली में छुपा था

रशीद क़ैसरानी

किसे है लौह-ए-वक़्त पर दवाम सोचते रहे

रशीद कामिल

तिरे नज़दीक आ कर सोचता हूँ

रसा चुग़ताई

ज़रा ज़रा सी बात पर वो मुझ से बद-गुमाँ रहे

रमेश कँवल

कहीं जंगल कहीं दरबार से जा मिलता है

राम रियाज़

हुक्म-ए-मुर्शिद पे ही जी उठना है मर जाना है

राकिब मुख़्तार

ज़माँ मकाँ थे मिरे सामने बिखरते हुए

राजेन्द्र मनचंदा बानी

जब जब तुम्हें भुलाया तुम और याद आए

राजेन्द्र कृष्ण

ऐसे न बिछड़ आँखों से अश्कों की तरह तू

राजेश रेड्डी

कू-ए-जानाँ मुझ से हरगिज़ इतनी बेगाना न हो

रईस अमरोहवी

दुनिया को क्या ख़बर? मिरी दुनिया फिर आ गई

रईस अमरोहवी

इक ख़्वाब नींद का था सबब, जो नहीं रहा

इरफ़ान सत्तार

दोस्त जब ज़ी-वक़ार होता है

इन्दिरा वर्मा

हैं घर की मुहाफ़िज़ मिरी दहकी हुई आँखें

इम्तियाज़ साग़र

इक बड़ी जंग लड़ रहा हूँ मैं

इफ़्तिख़ार राग़िब

इक बड़ी जंग लड़ रहा हूँ

इफ़्तिख़ार राग़िब

किसी सबब से अगर बोलता नहीं हूँ मैं

इफ़्तिख़ार मुग़ल

फिर उस के ब'अद तअल्लुक़ में फ़ासले होंगे

इफ़्तिख़ार इमाम सिद्दीक़ी

वो ख़्वाब था बिखर गया ख़याल था मिला नहीं

इफ़्तिख़ार इमाम सिद्दीक़ी

तिरे क़रीब रहूँ या कि दूर जाऊँ मैं

इफ़्तिख़ार इमाम सिद्दीक़ी

तुम से बिछड़ कर ज़िंदा हैं

इफ़्तिख़ार आरिफ़

समझ रहे हैं मगर बोलने का यारा नहीं

इफ़्तिख़ार आरिफ़

सहरा में एक शाम

इफ़्तिख़ार आरिफ़

समझ रहे हैं मगर बोलने का यारा नहीं

इफ़्तिख़ार आरिफ़

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