ग़म मुसलसल हो तो अहबाब बिछड़ जाते हैं
अब न कोई दिल-ए-तन्हा के क़रीं आएगा
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ग़म पर हैं तअ'ना-ज़न तो ख़ुशी भी निभाइए
कभी कभी अर्ज़-ए-ग़म की ख़ातिर हम इक बहाना भी चाहते हैं
थोड़ी देर ऐ साक़ी बज़्म में उजाला है
न मौज-ए-बादा न ज़ुल्फ़ों न इन घटाओं ने
ये धरती ख़ूब-सूरत है
धरती अमर है
रात दिल को था सहर का इंतिज़ार
वो सिर्फ़ मैं हूँ जो सौ जन्नतें सजा कर भी
मैं तो कहता हूँ तुम्ही दर्द के दरमाँ हो ज़रूर
सुब्ह-दम भी यूँ फ़सुर्दा हो गया
वो दिल से तंग आ के आज महफ़िल में हुस्न की तमकनत की ख़ातिर