कभी कभी अर्ज़-ए-ग़म की ख़ातिर हम इक बहाना भी चाहते हैं
जब आँसुओं से भरी हों आँखें तो मुस्कुराना भी चाहते हैं
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रोज़ पूजा के लिए फूल सजाता है 'सलाम'
थोड़ी देर ऐ साक़ी बज़्म में उजाला है
मुझे वो नज़्म लिखनी है
हम ऐसे लोग जल्द असीर-ए-ख़िज़ाँ हुए
कश्मकश
गुरेज़
हवा ज़माने की साक़ी बदल तो सकती है
अस्पताल
आज तो शम्अ हवाओं से ये कहती है 'सलाम'
रद्द-ए-अमल
पीतल का साँप
ड्राइंग-रूम