रोज़ पूजा के लिए फूल सजाता है 'सलाम'
जाने कब उस का ख़ुदा सू-ए-ज़मीं आएगा
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ज़िंदगी
सड़क बन रही है
सरहद-ए-फ़ना तक भी तीरगी नहीं आई
बहुत दिनों की बात है....
आज फिर ये कह रहा हूँ
कभी कभी अर्ज़-ए-ग़म की ख़ातिर हम इक बहाना भी चाहते हैं
मजबूरियाँ
हवा ज़माने की साक़ी बदल तो सकती है
शुक्रिया ऐ गर्दिश-ए-जाम-ए-शराब
यूँ ही आँखों में आ गए आँसू
थोड़ी देर ऐ साक़ी बज़्म में उजाला है
न मौज-ए-बादा न ज़ुल्फ़ों न इन घटाओं ने