रात दिल को था सहर का इंतिज़ार
अब ये ग़म है क्यूँ सवेरा हो गया
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ड्राइंग-रूम
ग़म पर हैं तअ'ना-ज़न तो ख़ुशी भी निभाइए
काश तुम समझ सकतीं ज़िंदगी में शाएर की ऐसे दिन भी आते हैं
ऐ मिरे घर की फ़ज़ाओं से गुरेज़ाँ महताब
अब मा-हसल हयात का बस ये है ऐ 'सलाम'
आँसू हूँ हँस रहा हूँ शगूफ़ों के दरमियाँ
अजीब बात है मैं जब भी कुछ उदास हुआ
वो दिल से तंग आ के आज महफ़िल में हुस्न की तमकनत की ख़ातिर
न मौज-ए-बादा न ज़ुल्फ़ों न इन घटाओं ने
मेरी मौत ऐ साक़ी इर्तिक़ा है हस्ती का
कभी कभी अर्ज़-ए-ग़म की ख़ातिर हम इक बहाना भी चाहते हैं
कश्मकश