ऐ मिरे घर की फ़ज़ाओं से गुरेज़ाँ महताब
अपने घर के दर-ओ-दीवार को कैसे छोड़ूँ
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काश तुम समझ सकतीं ज़िंदगी में शाएर की ऐसे दिन भी आते हैं
यूँ ही आँखों में आ गए आँसू
ग़म पर हैं तअ'ना-ज़न तो ख़ुशी भी निभाइए
कभी कभी तो सुना है हिला दिए हैं महल
वो ज़िंदा है
मेरी मौत ऐ साक़ी इर्तिक़ा है हस्ती का
मैं तो कहता हूँ तुम्ही दर्द के दरमाँ हो ज़रूर
कभी कभी अर्ज़-ए-ग़म की ख़ातिर हम इक बहाना भी चाहते हैं
शुक्रिया ऐ गर्दिश-ए-जाम-ए-शराब
ग़म मुसलसल हो तो अहबाब बिछड़ जाते हैं
जंगली नाच