शुक्रिया ऐ गर्दिश-ए-जाम-ए-शराब
मैं भरी महफ़िल में तन्हा हो गया
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कभी कभी तो सुना है हिला दिए हैं महल
आज तो शम्अ हवाओं से ये कहती है 'सलाम'
तसलसुल
अब अयादत को मिरी कोई नहीं आएगा
मैं तो कहता हूँ तुम्ही दर्द के दरमाँ हो ज़रूर
मेरी फ़िक्र की ख़ुशबू क़ैद हो नहीं सकती
रात दिल को था सहर का इंतिज़ार
ज़िंदगी
बुझ गई कुछ इस तरह शम्-ए-'सलाम'
बन गई है मौत कितनी ख़ुश-अदा मेरे लिए
मेरी मौत ऐ साक़ी इर्तिक़ा है हस्ती का