चाक Poetry (page 16)

राज़ है इबरत-असर फ़ितरत की हर तहरीर का

बेबाक भोजपुरी

खुला है जल्वा-ए-पिन्हाँ से अज़-बस चाक वहशत का

बयान मेरठी

जो तुम और सुब्ह और गुलनार-ए-ख़ंदाँ हो के मिल बैठे

बक़ा उल्लाह 'बक़ा'

ग़ैरत-ए-गुल है तू और चाक-गरेबाँ हम हैं

बक़ा उल्लाह 'बक़ा'

आहें अफ़्लाक में मिल जाती हैं

बक़ा उल्लाह 'बक़ा'

लहरों का आतिश-फ़िशाँ

बाक़र मेहदी

बहुत है एक नज़र

बाक़र मेहदी

कम कम रहना ग़म के सुर्ख़ जज़ीरों में

बक़ा बलूच

किरदार ही से ज़ीनत-ए-अफ़्लाक हो गए

बनो ताहिरा सईद

बीसवीं सदी के हम शाइ'र-ए-परेशाँ हैं

बनो ताहिरा सईद

या मुझे अफ़सर-ए-शाहाना बनाया होता

ज़फ़र

न दो दुश्नाम हम को इतनी बद-ख़़ूई से क्या हासिल

ज़फ़र

न दाइम ग़म है ने इशरत कभी यूँ है कभी वूँ है

ज़फ़र

करेंगे क़स्द हम जिस दम तुम्हारे घर में आवेंगे

ज़फ़र

जब कभी दरिया में होते साया-अफ़गन आप हैं

ज़फ़र

चाँद सा चेहरा कुछ इतना बेबाक हुआ

अज़्म शाकरी

अगर दश्त-ए-तलब से दश्त-ए-इम्कानी में आ जाते

अज़्म शाकरी

अज़ल-अबद

अज़ीज़ क़ैसी

सुब्ह और शाम के सब रंग हटाए हुए हैं

अज़ीज़ नबील

सर-ए-सहरा-ए-जाँ हम चाक-दामानी भी करते हैं

अज़ीज़ नबील

ख़याल-ओ-ख़्वाब का सारा धुआँ उतर चुका है

अज़ीज़ नबील

देख कर हर दर-ओ-दीवार को हैराँ होना

अज़ीज़ लखनवी

बाज़ी-ए-इश्क़ मरे बैठे हैं

अज़ीज़ लखनवी

मिरा चाक-ए-गिरेबाँ चाक-ए-दिल से मिलने वाला है

अज़ीज़ हामिद मदनी

बहार चाक-ए-गिरेबाँ में ठहर जाती है

अज़ीज़ हामिद मदनी

ज़ंजीर-ए-पा से आहन-ए-शमशीर है तलब

अज़ीज़ हामिद मदनी

वो एक रौ जो लब-ए-नुक्ता-चीं में होती है

अज़ीज़ हामिद मदनी

सलीब ओ दार के क़िस्से रक़म होते ही रहते हैं

अज़ीज़ हामिद मदनी

लिखी हुई जो तबाही है उस से क्या जाता

अज़ीज़ हामिद मदनी

क्या हुए बाद-ए-बयाबाँ के पुकारे हुए लोग

अज़ीज़ हामिद मदनी

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