दुश्मन Poetry (page 19)

देख कर जौबन तिरा किस किस को हैरानी हुई

दाग़ देहलवी

बुतान-ए-माहवश उजड़ी हुई मंज़िल में रहते हैं

दाग़ देहलवी

भवें तनती हैं ख़ंजर हाथ में है तन के बैठे हैं

दाग़ देहलवी

भला हो पीर-ए-मुग़ाँ का इधर निगाह मिले

दाग़ देहलवी

बात मेरी कभी सुनी ही नहीं

दाग़ देहलवी

किया है फ़ाश पर्दा कुफ़्र-ओ-दीं का इस क़दर मैं ने

चकबस्त ब्रिज नारायण

न कोई दोस्त दुश्मन हो शरीक-ए-दर्द-ओ-ग़म मेरा

चकबस्त ब्रिज नारायण

ऐ 'जलीस' अब इक तुम्हीं में आदमियत हो तो हो

ब्रहमा नन्द जलीस

जब ख़िज़ाँ आई चमन में सब दग़ा देने लगे

बूम मेरठी

इस क़दर बढ़ गई वहशत तिरे दीवाने की

बूम मेरठी

अगर दुश्मन की थोड़ी सी मरम्मत और हो जाती

बूम मेरठी

जब कभी नाम-ए-मोहम्मद लब पे मेरे आए है

बिस्मिल अज़ीमाबादी

कितना अजीब शब का ये मंज़र लगा मुझे

बिस्मिल आग़ाई

मोहब्बत नग़्मा भी है साज़ भी है

बिर्ज लाल रअना

बैठे जो शाम से तिरे दर पे सहर हुई

भारतेंदु हरिश्चंद्र

अजब जौबन है गुल पर आमद-ए-फ़स्ल-ए-बहारी है

भारतेंदु हरिश्चंद्र

तीर-ए-क़ातिल को कलेजे से लगा रक्खा है

बेख़ुद देहलवी

आप को रंज हुआ आप के दुश्मन रोए

बेख़ुद देहलवी

वो सुन कर हूर की तारीफ़ पर्दे से निकल आए

बेख़ुद देहलवी

क़यामत है जो ऐसे पर दिल-ए-उम्मीद-वार आए

बेख़ुद देहलवी

मुँह फेर कर वो कहते हैं बस मान जाइए

बेख़ुद देहलवी

मुझ को न दिल पसंद न वो बेवफ़ा पसंद

बेख़ुद देहलवी

माशूक़ हमें बात का पूरा नहीं मिलता

बेख़ुद देहलवी

झूट सच आप तो इल्ज़ाम दिए जाते हैं

बेख़ुद देहलवी

दोनों ही की जानिब से हो गर अहद-ए-वफ़ा हो

बेख़ुद देहलवी

बेताब रहें हिज्र में कुछ दिल तो नहीं हम

बेख़ुद देहलवी

बज़्म-ए-दुश्मन में बुलाते हो ये क्या करते हो

बेख़ुद देहलवी

बनी थी दिल पे कुछ ऐसी की इज़्तिराब न था

बेख़ुद देहलवी

ऐसा बना दिया तुझे क़ुदरत ख़ुदा की है

बेख़ुद देहलवी

आ गए फिर तिरे अरमान मिटाने हम को

बेख़ुद देहलवी

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