किया है फ़ाश पर्दा कुफ़्र-ओ-दीं का इस क़दर मैं ने
कि दुश्मन है बरहमन और अदू शैख़-ए-हरम मेरा
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लखनऊ में फिर हुई आरास्ता बज़्म-ए-सुख़न
जो तू कहे तो शिकायत का ज़िक्र कम कर दें
इस को ना-क़दरी-ए-आलम का सिला कहते हैं
दर्द-ए-दिल पास-ए-वफ़ा जज़्बा-ए-ईमाँ होना
ख़ुदा ने इल्म बख़्शा है अदब अहबाब करते हैं
अदब ता'लीम का जौहर है ज़ेवर है जवानी का
नए झगड़े निराली काविशें ईजाद करते हैं
अज़ीज़ान-ए-वतन को ग़ुंचा ओ बर्ग ओ समर जाना
अगर दर्द-ए-मोहब्बत से न इंसाँ आश्ना होता
कुछ ऐसा पास-ए-ग़ैरत उठ गया इस अहद-ए-पुर-फ़न में
न कोई दोस्त दुश्मन हो शरीक-ए-दर्द-ओ-ग़म मेरा
उन्हें ये फ़िक्र है हर दम नई तर्ज़-ए-जफ़ा क्या है