लखनऊ में फिर हुई आरास्ता बज़्म-ए-सुख़न
बाद मुद्दत फिर हुआ ज़ौक़-ए-ग़ज़ल-ख़्वानी मुझे
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है मिरा ज़ब्त-ए-जुनूँ जोश-ए-जुनूँ से बढ़ कर
नया बिस्मिल हूँ मैं वाक़िफ़ नहीं रस्म-ए-शहादत से
अगर दर्द-ए-मोहब्बत से न इंसाँ आश्ना होता
इस को ना-क़दरी-ए-आलम का सिला कहते हैं
मंज़िल-ए-इबरत है दुनिया अहल-ए-दुनिया शाद हैं
हम सोचते हैं रात में तारों को देख कर
हुब्ब-ए-क़ौमी
न कोई दोस्त दुश्मन हो शरीक-ए-दर्द-ओ-ग़म मेरा
जो तू कहे तो शिकायत का ज़िक्र कम कर दें
मज़ा है अहद-ए-जवानी में सर पटकने का
हमारा वतन दिल से प्यारा वतन
कभी था नाज़ ज़माने को अपने हिन्द पे भी