मज़ा है अहद-ए-जवानी में सर पटकने का
लहू में फिर ये रवानी रहे रहे न रहे
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ख़ुदा ने इल्म बख़्शा है अदब अहबाब करते हैं
लखनऊ में फिर हुई आरास्ता बज़्म-ए-सुख़न
दिल किए तस्ख़ीर बख़्शा फ़ैज़-ए-रूहानी मुझे
कभी था नाज़ ज़माने को अपने हिन्द पे भी
उन्हें ये फ़िक्र है हर दम नई तर्ज़-ए-जफ़ा क्या है
हम सोचते हैं रात में तारों को देख कर
चराग़ क़ौम का रौशन है अर्श पर दिल के
हमारा वतन दिल से प्यारा वतन
वतन की ख़ाक से मर कर भी हम को उन्स बाक़ी है
ज़बान-ए-हाल से ये लखनऊ की ख़ाक कहती है
न कोई दोस्त दुश्मन हो शरीक-ए-दर्द-ओ-ग़म मेरा
अगर दर्द-ए-मोहब्बत से न इंसाँ आश्ना होता