ज़बान-ए-हाल से ये लखनऊ की ख़ाक कहती है
मिटाया गर्दिश-ए-अफ़्लाक ने जाह-ओ-हशम मेरा
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रामायण का एक सीन
हुब्ब-ए-क़ौमी
ये कैसी बज़्म है और कैसे उस के साक़ी हैं
जो तू कहे तो शिकायत का ज़िक्र कम कर दें
दर्द-ए-दिल पास-ए-वफ़ा जज़्बा-ए-ईमाँ होना
है मिरा ज़ब्त-ए-जुनूँ जोश-ए-जुनूँ से बढ़ कर
मंज़िल-ए-इबरत है दुनिया अहल-ए-दुनिया शाद हैं
नया बिस्मिल हूँ मैं वाक़िफ़ नहीं रस्म-ए-शहादत से
अगर दर्द-ए-मोहब्बत से न इंसाँ आश्ना होता
ख़ाक-ए-हिंद
अदब ता'लीम का जौहर है ज़ेवर है जवानी का