मंज़िल-ए-इबरत है दुनिया अहल-ए-दुनिया शाद हैं
ऐसी दिल-जमई से होती है परेशानी मुझे
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ज़बाँ को बंद करें या मुझे असीर करें
अज़ीज़ान-ए-वतन को ग़ुंचा ओ बर्ग ओ समर जाना
ज़बान-ए-हाल से ये लखनऊ की ख़ाक कहती है
अदब ता'लीम का जौहर है ज़ेवर है जवानी का
कुछ ऐसा पास-ए-ग़ैरत उठ गया इस अहद-ए-पुर-फ़न में
उन्हें ये फ़िक्र है हर दम नई तर्ज़-ए-जफ़ा क्या है
ख़ुदा ने इल्म बख़्शा है अदब अहबाब करते हैं
कभी था नाज़ ज़माने को अपने हिन्द पे भी
वतन की ख़ाक से मर कर भी हम को उन्स बाक़ी है
हम सोचते हैं रात में तारों को देख कर
चराग़ क़ौम का रौशन है अर्श पर दिल के
इक सिलसिला हवस का है इंसाँ की ज़िंदगी