चराग़ क़ौम का रौशन है अर्श पर दिल के
उसे हवा के फ़रिश्ते बुझा नहीं सकते
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ये कैसी बज़्म है और कैसे उस के साक़ी हैं
वतन की ख़ाक से मर कर भी हम को उन्स बाक़ी है
कभी था नाज़ ज़माने को अपने हिन्द पे भी
ज़बाँ को बंद करें या मुझे असीर करें
अगर दर्द-ए-मोहब्बत से न इंसाँ आश्ना होता
कुछ ऐसा पास-ए-ग़ैरत उठ गया इस अहद-ए-पुर-फ़न में
नया बिस्मिल हूँ मैं वाक़िफ़ नहीं रस्म-ए-शहादत से
किया है फ़ाश पर्दा कुफ़्र-ओ-दीं का इस क़दर मैं ने
फ़ना का होश आना ज़िंदगी का दर्द-ए-सर जाना
दर्द-ए-दिल पास-ए-वफ़ा जज़्बा-ए-ईमाँ होना
ख़ाक-ए-हिंद