तीर-ए-क़ातिल को कलेजे से लगा रक्खा है
हम तो दुश्मन को भी आराम दिए जाते हैं
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मुँह फेर कर वो कहते हैं बस मान जाइए
वो और तसल्ली मुझे दें उन की बला दे
'बेख़ुद' तो मर मिटे जो कहा उस ने नाज़ से
तुम्हारी याद मेरा दिल ये दिनों चलते पुर्ज़े हैं
भूले से कहा मान भी लेते हैं किसी का
उन्हें तो सितम का मज़ा पड़ गया है
दिल है मुश्ताक़ जुदा आँख तलबगार जुदा
सुन के सारी दास्तान-ए-रंज-ओ-ग़म
चश्म-ए-बद-दूर वो भोले भी हैं नादाँ भी हैं
दे मोहब्बत तो मोहब्बत में असर पैदा कर
न अरमाँ बन के आते हैं न हसरत बन के आते हैं
न देखे होंगे रिंद-ए-ला-उबाली तुम ने 'बेख़ुद' से