हाल Poetry (page 6)
क्या हिज्र में जी निढाल करना
वाली आसी
हम अपने-आप पे भी ज़ाहिर कभी दिल का हाल नहीं करते
वाली आसी
उल्फ़त ने तिरी हम को तो रक्खा न कहीं का
वाजिद अली शाह अख़्तर
ज़मीं रोई हमारे हाल पर और आसमाँ रोया
वहशत रज़ा अली कलकत्वी
ज़मीं रोई हमारे हाल पर और आसमाँ रोया
वहशत रज़ा अली कलकत्वी
ज़ब्त की कोशिश है जान-ए-ना-तवाँ मुश्किल में है
वहशत रज़ा अली कलकत्वी
तिरे आशुफ़्ता से क्या हाल-ए-बेताबी बयाँ होगा
वहशत रज़ा अली कलकत्वी
लबरेज़-ए-हक़ीक़त गो अफ़साना-ए-मूसा है
वहशत रज़ा अली कलकत्वी
क्या है कि आज चलते हो कतरा के राह से
वहशत रज़ा अली कलकत्वी
किसी सूरत से उस महफ़िल में जा कर
वहशत रज़ा अली कलकत्वी
दिल के कहने पे चलूँ अक़्ल का कहना न करूँ
वहशत रज़ा अली कलकत्वी
देखना वो गिर्या-ए-हसरत-मआल आ ही गया
वहशत रज़ा अली कलकत्वी
कोई न चाहने वाला था हुस्न-ए-रुस्वा का
वहीद क़ुरैशी
थकावटों से बैठ के सफ़र उतारिए कहीं
वहाब दानिश
हम ने घटता-बढ़ता साया पग-पग चल कर देखा है
विश्वनाथ दर्द
हो तिरा इश्क़ मिरी ज़ात का मेहवर जैसे
उरूज ज़ेहरा ज़ैदी
अश्क पर गुदाज़-दिल हाशिया चढ़ाता है
उरूज ज़ैदी बदायूनी
बदन का बोझ उठाना भी अब मुहाल हुआ
उमर फ़ारूक़
बाहर बाहर सन्नाटा है अंदर अंदर शोर बहुत
उमर अंसारी
कभी ज़माना था उस की तलब में रहते थे
तुफ़ैल चतुर्वेदी
ग़ज़ल का सिलसिला था याद होगा
तुफ़ैल चतुर्वेदी
जीना है तो जीने की पहली सी अदा माँगो
तुफ़ैल अहमद मदनी
पुरानी चोट मैं कैसे दिखाऊँ
त्रिपुरारि
चमन में बर्क़ कभी आशियाँ से दूर नहीं
तिश्ना बरेलवी
है ये पुर-दर्द दास्ताँ 'महरूम'
तिलोकचंद महरूम
दिल में कहते हैं कि ऐ काश न आए होते
तिलोकचंद महरूम
बुरा हो उल्फ़त-ए-ख़ूबाँ का हम-नशीं हम तो
तिलोकचंद महरूम
छब्बीस जनवरी
तिलोकचंद महरूम
ताइर-ए-दिल के लिए ज़ुल्फ़ का जाल अच्छा है
तिलोकचंद महरूम
क्या सुनाएँ किसी को हाल अपना
तिलोकचंद महरूम
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