जीने Poetry (page 10)

तू न हो हम-नफ़स अगर जीने का लुत्फ़ ही नहीं

हादी मछलीशहरी

उट्ठो मरने का हक़ इस्तिमाल करो

हबीब जालिब

जम्हूरियत

हबीब जालिब

कॉफ़ी-हाउस

हबीब जालिब

यूँ वो ज़ुल्मत से रहा दस्त-ओ-गरेबाँ यारो

हबीब जालिब

मेरे लिए जीने का सहारा है अभी तक

हबीब अहमद सिद्दीक़ी

इस तरह दर्द का तुम अपने मुदावा करना

हबीब आरवी

हाथ छूटें भी तो रिश्ते नहीं छोड़ा करते

गुलज़ार

बहार इस धूम से आई गई उम्मीद जीने की

ग़ुलाम यहया हुज़ूर अज़ीमाबादी

उम्र गई उल्फ़त-ए-ज़र जी से इलाही न गई

ग़ुलाम यहया हुज़ूर अज़ीमाबादी

फिर मुझे जीने की दुआ दी है

गोर बचन सिंह दयाल मग़मूम

कैसा इंसाँ तरस रहा है जीने को

ग़ुलाम मुर्तज़ा राही

माज़ी! तुझ से ''हाल'' मिरा शर्मिंदा है

ग़ुलाम मुर्तज़ा राही

सोचा है तुम्हारी आँखों से अब मैं उन को मिलवा ही दूँ

ग़ुलाम मोहम्मद क़ासिर

कुछ बे-तरतीब सितारों को पलकों ने किया तस्ख़ीर तो क्या

ग़ुलाम मोहम्मद क़ासिर

ख़ामोश थे तुम और बोलता था बस एक सितारा आँखों में

ग़ुलाम मोहम्मद क़ासिर

जज़्बों को किया ज़ंजीर तो क्या तारों को किया तस्ख़ीर तो क्या

ग़ुलाम मोहम्मद क़ासिर

तुझे कल ही से नहीं बे-कली न कुछ आज ही से रहा क़लक़

ग़ुलाम मौला क़लक़

यक़ीन जानिए इस में कोई करामत है

ग़ज़नफ़र

तारीकी में नूर का मंज़र सूरज में शब देखोगे

ग़ज़नफ़र

मोहब्बत में नहीं है फ़र्क़ जीने और मरने का

ग़ालिब

कहते हैं जीते हैं उम्मीद पे लोग

ग़ालिब

हवस को है नशात-ए-कार क्या क्या

ग़ालिब

इश्क़ तासीर से नौमीद नहीं

ग़ालिब

हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले

ग़ालिब

हवस को है नशात-ए-कार क्या क्या

ग़ालिब

दश्त-ए-तन्हाई में जीने का सलीक़ा सीखिए

फ़ुज़ैल जाफ़री

सुब्ह तक हम रात का ज़ाद-ए-सफ़र हो जाएँगे

फ़ुज़ैल जाफ़री

तसव्वुर में जमाल-ए-रू-ए-ताबाँ ले के चलता हूँ

फ़ितरत अंसारी

बा'द मुद्दत के ख़याल-ए-मय-ओ-मीना आया

फ़ितरत अंसारी

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