जीने Poetry (page 3)
मेरे जीने का ये उस्लूब पता देता है
सय्यद आबिद अली आबिद
दर-ए-इख़्लास की दहलीज़ पर ख़म हूँ 'आबिद'
सय्यद आबिद अली आबिद
ऐ इल्तिफ़ात-ए-यार मुझे सोचने तो दे
सय्यद आबिद अली आबिद
वाइज़-ए-शहर ख़ुदा है मुझे मा'लूम न था
सय्यद आबिद अली आबिद
रेत की तरह किनारों पे हैं डरने वाले
सय्यद आबिद अली आबिद
नग़्मा ऐसा भी मिरे सीना-ए-सद-चाक में है
सय्यद आबिद अली आबिद
आई सहर क़रीब तो मैं ने पढ़ी ग़ज़ल
सय्यद आबिद अली आबिद
मैं नहीं कहता हर इक चीज़ पुरानी ले जा
सुरेन्द्र शजर
फिर भी हम लोग वहाँ जीते हैं जीने की तरह
सुल्तान अख़्तर
सब का चेहरा पस-ए-दीवार-ए-अना रहता है
सुल्तान अख़्तर
हर इक लम्हा हमें हम से जुदा करती हुई सी
सुल्तान अख़्तर
न ढलती शाम न ठंडी सहर में रक्खा है
सुलेमान ख़ुमार
फ़क़ीह-ए-शहर से रिश्ता बनाए रहता हूँ
सुहैल अहमद ज़ैदी
उठिए तो कहाँ जाइए जो कुछ है यहीं है
सुहा मुजद्ददी
ज़ब्त कर ग़म को कि जीने का हुनर आएगा
सुभाष पाठक ज़िया
मैं यूँ तो ख़्वाब की ताबीर सोचता भी नहीं
सुबहान असद
यूँ सुबुक-दोश हूँ जीने का भी इल्ज़ाम नहीं
सिराज लखनवी
अब इतनी अर्ज़ां नहीं बहारें वो आलम-ए-रंग-ओ-बू कहाँ है
सिराज लखनवी
कोई शिकवा कोई गिला दे दे
सिरज़ अालम ज़ख़मी
दिल में तूफ़ान नहीं आँख में सैलाब नहीं
सिरज़ अालम ज़ख़मी
आसमाँ एक किनारे से उठा सकती हूँ
सिदरा सहर इमरान
मैं ने हँसने की अज़िय्यत झेल ली रोया नहीं
सिद्दीक़ मुजीबी
आरज़ू जीने की थी इम्कान जीने का न था
सिद्दीक़ मुजीबी
जैसा मंज़र मिले गवारा कर
शुजा ख़ावर
चेहरे पे थोड़ी रक्खी है
शुजा ख़ावर
जाने क्या बात है मानूस बहुत लगता है
शोहरत बुख़ारी
दिल उस से लगा जिस से रूठा भी नहीं जाता
शोहरत बुख़ारी
गईं यारों से वो अगली मुलाक़ातों की सब रस्में
ज़ौक़
नसब ये है कि वो दुश्मन को कम-नसब न कहे
शहपर रसूल
ख़ुद को ख़ुद पर ही जो इफ़्शा कभी करना पड़ जाए
शहपर रसूल
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