दर-ए-इख़्लास की दहलीज़ पर ख़म हूँ 'आबिद'
एक जीने का सलीक़ा दिल-ए-बेबाक में है
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ग़म के तारीक उफ़ुक़ पर 'आबिद'
इक दिन उस ने नैन मिला के शर्मा के मुख मोड़ा था
शब-ए-हिज्राँ की दराज़ी से परेशान न था
कुछ एहतिराम भी कर ग़म की वज़्अ'-दारी का
दिन ढला शाम हुई फूल कहीं लहराए
ये क्या तिलिस्म है दुनिया पे बार गुज़री है
रेत की तरह किनारों पे हैं डरने वाले
गर्दिश-ए-जाम नहीं रुक सकती
इश्क़ की तर्ज़-ए-तकल्लुम वही चुप है कि जो थी
वो मुझे मश्वरा-ए-तर्क-ए-वफ़ा देते थे
दिल है आईना-ए-हैरत से दो-चार आज की रात
कहते थे तुझी को जान अपनी