कुछ एहतिराम भी कर ग़म की वज़्अ'-दारी का
गिराँ है अर्ज़-ए-तमन्ना तो बार बार न कर
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ग़म के तारीक उफ़ुक़ पर 'आबिद'
यही दिल जिस को शिकायत है गिराँ-जानी की
जो भी मिंजुमला-ए-आशुफ़्ता सरा होता है
चैन पड़ता है दिल को आज न कल
मय हो साग़र में कि ख़ूँ रात गुज़र जाएगी
कभी मैं जुरअत-ए-इज़हार-ए-मुद्दआ तो करूँ
दर-ए-इख़्लास की दहलीज़ पर ख़म हूँ 'आबिद'
सब के जल्वे नज़र से गुज़रे हैं
नग़्मा ऐसा भी मिरे सीना-ए-सद-चाक में है
इश्क़ की तर्ज़-ए-तकल्लुम वही चुप है कि जो थी
दिन ढला शाम हुई फूल कहीं लहराए