कोई बरसा न सर-ए-किश्त-ए-वफ़ा
कितने बादल गुहर-अफ़शाँ गुज़रे
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मेरा जीना है सेज काँटों की
या कभी आशिक़ी का खेल न खेल
हम बिन ग़म-ए-यार भी जिए हैं
गर्दिश-ए-जाम नहीं रुक सकती
ये अर्ज़-ए-शौक़ है आराइश-ए-बयाँ भी तो हो
ये क्या तिलिस्म है दुनिया पे बार गुज़री है
कहते थे तुझी को जान अपनी
सब के जल्वे नज़र से गुज़रे हैं
दिन ढला शाम हुई फूल कहीं लहराए
वाइज़ो मैं भी तुम्हारी ही तरह मस्जिद में
दर-ए-इख़्लास की दहलीज़ पर ख़म हूँ 'आबिद'