कहते थे तुझी को जान अपनी
और तेरे बग़ैर भी जिए हैं
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ये हादिसा भी हुआ है कि इश्क़-ए-यार की याद
शरअ-ओ-आईन की ताज़ीर के बा-वस्फ़ शबाब
हम बिन ग़म-ए-यार भी जिए हैं
आई सहर क़रीब तो मैं ने पढ़ी ग़ज़ल
किसी की इश्वा-गरी से ब-ग़ैर-ए-फ़स्ल-ए-बहार
उन्हीं को अर्ज़-ए-वफ़ा का था इश्तियाक़ बहुत
आम हो फ़ैज़-ए-बहाराँ तो मज़ा आ जाए
गुलों की ख़ूँ-शुदगी को शगुफ़्तगी न समझ
दम-ए-रुख़्सत वो चुप रहे 'आबिद'
कोई बरसा न सर-ए-किश्त-ए-वफ़ा
ग़म-ए-दौराँ ग़म-ए-जानाँ का निशाँ है कि जो था