ये हादिसा भी हुआ है कि इश्क़-ए-यार की याद
दयार-ए-क़ल्ब से बेगाना-वार गुज़री है
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हम बिन ग़म-ए-यार भी जिए हैं
कहो बुतों से कि हम तब्अ सादा रखते हैं
या कभी आशिक़ी का खेल न खेल
दम-ए-रुख़्सत वो चुप रहे 'आबिद'
मय हो साग़र में कि ख़ूँ रात गुज़र जाएगी
यही था वक़्फ़ तिरी महफ़िल-ए-तरब के लिए
किसी की इश्वा-गरी से ब-ग़ैर-ए-फ़स्ल-ए-बहार
साक़िया है तिरी महफ़िल में ख़ुदाओं का हुजूम
दिल का मोआ'मला निगह-ए-आशना के साथ
चैन पड़ता है दिल को आज न कल
कहते थे तुझी को जान अपनी
दिन ढला शाम हुई फूल कहीं लहराए