उन्हीं को अर्ज़-ए-वफ़ा का था इश्तियाक़ बहुत
उन्हीं को अर्ज़-ए-वफ़ा ना-गवार गुज़री है
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या कभी आशिक़ी का खेल न खेल
किसी की इश्वा-गरी से ब-ग़ैर-ए-फ़स्ल-ए-बहार
मेरे जीने का ये उस्लूब पता देता है
आम हो फ़ैज़-ए-बहाराँ तो मज़ा आ जाए
यही दिल जिस को शिकायत है गिराँ-जानी की
यही था वक़्फ़ तिरी महफ़िल-ए-तरब के लिए
तेरे ख़ुश-पोश फ़क़ीरों से वो मिलते तो सही
ये हादिसा भी हुआ है कि इश्क़-ए-यार की याद
गुलों की ख़ूँ-शुदगी को शगुफ़्तगी न समझ
वाइज़-ए-शहर ख़ुदा है मुझे मा'लूम न था
शरअ-ओ-आईन की ताज़ीर के बा-वस्फ़ शबाब
मय हो साग़र में कि ख़ूँ रात गुज़र जाएगी