शरअ-ओ-आईन की ताज़ीर के बा-वस्फ़ शबाब
लब-ओ-रुख़्सार की जानिब निगराँ है कि जो था
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सुबू उठा कि ये नाज़ुक मक़ाम है साक़ी
सब के जल्वे नज़र से गुज़रे हैं
शब-ए-हिज्राँ की दराज़ी से परेशान न था
ये क्या तिलिस्म है दुनिया पे बार गुज़री है
तेरे ख़ुश-पोश फ़क़ीरों से वो मिलते तो सही
ये हादिसा भी हुआ है कि इश्क़-ए-यार की याद
कहते थे तुझी को जान अपनी
ग़म के तारीक उफ़ुक़ पर 'आबिद'
जल्वा-ए-यार से क्या शिकवा-ए-बेजा कीजे
ग़म-ए-दौराँ ग़म-ए-जानाँ का निशाँ है कि जो था
वाइज़-ए-शहर ख़ुदा है मुझे मा'लूम न था
उन्हीं को अर्ज़-ए-वफ़ा का था इश्तियाक़ बहुत