जल्वा-ए-यार से क्या शिकवा-ए-बेजा कीजे
शौक़-ए-दीदार का आलम वो कहाँ है कि जो था
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कहते थे तुझी को जान अपनी
मय हो साग़र में कि ख़ूँ रात गुज़र जाएगी
शरअ-ओ-आईन की ताज़ीर के बा-वस्फ़ शबाब
कोई बरसा न सर-ए-किश्त-ए-वफ़ा
शब-ए-हिज्राँ की दराज़ी से परेशान न था
वो मुझे मश्वरा-ए-तर्क-ए-वफ़ा देते थे
यही था वक़्फ़ तिरी महफ़िल-ए-तरब के लिए
ये अर्ज़-ए-शौक़ है आराइश-ए-बयाँ भी तो हो
तेरे ख़ुश-पोश फ़क़ीरों से वो मिलते तो सही
यही दिल जिस को शिकायत है गिराँ-जानी की
ये हादिसा भी हुआ है कि इश्क़-ए-यार की याद
गर्दिश-ए-जाम नहीं रुक सकती