शब-ए-हिज्राँ की दराज़ी से परेशान न था
ये तेरी ज़ुल्फ़-ए-रसा है मुझे मालूम न था
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वो मुझे मश्वरा-ए-तर्क-ए-वफ़ा देते थे
ये हादिसा भी हुआ है कि इश्क़-ए-यार की याद
आम हो फ़ैज़-ए-बहाराँ तो मज़ा आ जाए
यही था वक़्फ़ तिरी महफ़िल-ए-तरब के लिए
दिल है आईना-ए-हैरत से दो-चार आज की रात
तेरे ख़ुश-पोश फ़क़ीरों से वो मिलते तो सही
ये क्या तिलिस्म है दुनिया पे बार गुज़री है
आई सहर क़रीब तो मैं ने पढ़ी ग़ज़ल
दिल का मोआ'मला निगह-ए-आशना के साथ
दिन ढला शाम हुई फूल कहीं लहराए
रेत की तरह किनारों पे हैं डरने वाले