मेरे जीने का ये उस्लूब पता देता है
कि अभी इश्क़ में कुछ काम हैं करने वाले
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कोई बरसा न सर-ए-किश्त-ए-वफ़ा
कुछ एहतिराम भी कर ग़म की वज़्अ'-दारी का
ग़म-ए-दौराँ ग़म-ए-जानाँ का निशाँ है कि जो था
दिन ढला शाम हुई फूल कहीं लहराए
सब के जल्वे नज़र से गुज़रे हैं
हम बिन ग़म-ए-यार भी जिए हैं
तेरे ख़ुश-पोश फ़क़ीरों से वो मिलते तो सही
मेरा जीना है सेज काँटों की
वाइज़-ए-शहर ख़ुदा है मुझे मा'लूम न था
मय हो साग़र में कि ख़ूँ रात गुज़र जाएगी
ये हादिसा भी हुआ है कि इश्क़-ए-यार की याद
आम हो फ़ैज़-ए-बहाराँ तो मज़ा आ जाए