ग़म-ए-दौराँ ग़म-ए-जानाँ का निशाँ है कि जो था
वस्फ़-ए-ख़ूबाँ ब-हदीस-ए-दिगराँ है कि जो था
Allama Iqbal
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दिन ढला शाम हुई फूल कहीं लहराए
शब-ए-हिज्राँ की दराज़ी से परेशान न था
ये अर्ज़-ए-शौक़ है आराइश-ए-बयाँ भी तो हो
दिल का मोआ'मला निगह-ए-आशना के साथ
गुलों की ख़ूँ-शुदगी को शगुफ़्तगी न समझ
वाइज़-ए-शहर ख़ुदा है मुझे मा'लूम न था
कहते थे तुझी को जान अपनी
कहो बुतों से कि हम तब्अ सादा रखते हैं
चैन पड़ता है दिल को आज न कल
गर्दिश-ए-जाम नहीं रुक सकती
ग़म के तारीक उफ़ुक़ पर 'आबिद'
ये हादिसा भी हुआ है कि इश्क़-ए-यार की याद