इक दिन उस ने नैन मिला के शर्मा के मुख मोड़ा था
तब से सुंदर सुंदर सपने मन को घेरे फिरते हैं
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साक़िया है तिरी महफ़िल में ख़ुदाओं का हुजूम
ग़म-ए-दौराँ ग़म-ए-जानाँ का निशाँ है कि जो था
ग़म के तारीक उफ़ुक़ पर 'आबिद'
ये हादिसा भी हुआ है कि इश्क़-ए-यार की याद
जल्वा-ए-यार से क्या शिकवा-ए-बेजा कीजे
जो भी मिंजुमला-ए-आशुफ़्ता सरा होता है
उन्हीं को अर्ज़-ए-वफ़ा का था इश्तियाक़ बहुत
गर्दिश-ए-जाम नहीं रुक सकती
वाइज़-ए-शहर ख़ुदा है मुझे मा'लूम न था
कहो बुतों से कि हम तब्अ सादा रखते हैं