बहार इस धूम से आई गई उम्मीद जीने की
गरेबाँ फट चुका कुइ दम में अब नौबत ही सीने की
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यूँ तो दिल हर कदाम रखता है
शजर बाग़-ए-जहाँ का था जहाँ तक सब समर लाया
अबस घर से अपने निकाले है तू
आज़ुर्दा कुछ हैं शायद वर्ना हुज़ूर मुझ से
यार गर पूछे तो कीजे कुछ अर्ज़
नाचार है दिल ज़ुल्फ़-ए-गिरह-गीर के आगे
तुझ बिन इक दल हो पास रहता है
महज़ूँ न हो 'हुज़ूर' अब आता है यार अपना
करूँ क़त्-ए-उल्फ़त बुतों से व-लेकिन
अश्क आँखों के अंदर न रहा है न रहेगा
और रब्त जिसे कुफ़्र से है या'नी बरहमन
बा'द-ए-मकीं मकाँ का गर बाम रहा तो क्या हुआ