और रब्त जिसे कुफ़्र से है या'नी बरहमन
कहता है कि हरगिज़ मिरा ज़ुन्नार न टूटे
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आबरू उल्फ़त में अगर चाहिए
अश्क आँखों के अंदर न रहा है न रहेगा
क्या रफ़ू करने लगा है जा भी नादाँ यक तरफ़
उम्र गई उल्फ़त-ए-ज़र जी से इलाही न गई
आँखों का ख़ुदा ही है ये आँसू की है गर मौज
महज़ूँ न हो 'हुज़ूर' अब आता है यार अपना
दिल ब-अज़-काबा है याराँ जुब्बा-साई चाहिए
शब-ए-हिज्र में एक दिन देखना
आइना है ये जहाँ इस में जमाल अपना है
देखना ज़ोर ही गाँठा है दिल-ए-यार से दिल
है अफ़्सोस ऐ उम्र जाने का तेरे
बा'द-ए-मकीं मकाँ का गर बाम रहा तो क्या हुआ