ऐ बहर न तू इतना उमँड चल मिरे आगे
रो रो के डुबा दूँगा कभी आ गई गर मौज
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आइना है ये जहाँ इस में जमाल अपना है
कब इस जी की हालत कोई जानता है
उस शोख़ से क्या कीजिए इज़्हार-ए-तमन्ना
जब से गया है वो मिरा ईमान-ए-ज़िंदगी
यूँ तो दिल हर कदाम रखता है
देखना ज़ोर ही गाँठा है दिल-ए-यार से दिल
शब-ए-हिज्र में एक दिन देखना
और रब्त जिसे कुफ़्र से है या'नी बरहमन
दीन ओ दुनिया का जो नहीं पाबंद
आबरू उल्फ़त में अगर चाहिए
अश्क आँखों के अंदर न रहा है न रहेगा