अदा को तिरी मेरा जी जानता है
हरीफ़ अपना हर कोई पहचानता है
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गुल-एज़ार और भी यूँ रखते हैं रंग और नमक
आज़ुर्दा कुछ हैं शायद वर्ना हुज़ूर मुझ से
आँखों का ख़ुदा ही है ये आँसू की है गर मौज
करूँ क़त्-ए-उल्फ़त बुतों से व-लेकिन
ग़ैर आए पीछे पा गए मुजरे का बार पहले
आबरू उल्फ़त में अगर चाहिए
उस शोख़ से क्या कीजिए इज़्हार-ए-तमन्ना
इश्क़ ने सामने होते ही जलाया दिल को
अबस घर से अपने निकाले है तू
कहूँ कि शैख़-ए-ज़माना हूँ लाफ़ तो ये है
है अफ़्सोस ऐ उम्र जाने का तेरे