इश्क़ ने सामने होते ही जलाया दिल को
जैसे बस्ती को लगावे है अदू जंग में आग
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अबस घर से अपने निकाले है तू
उस शोख़ से क्या कीजिए इज़्हार-ए-तमन्ना
तुझ बिन इक दल हो पास रहता है
आँखों का ख़ुदा ही है ये आँसू की है गर मौज
महज़ूँ न हो 'हुज़ूर' अब आता है यार अपना
हैं शैख़ ओ बरहमन तस्बीह और ज़ुन्नार के बंदे
जहाँ में कहाँ बाहम उल्फ़त रही है
क्या रफ़ू करने लगा है जा भी नादाँ यक तरफ़
शजर बाग़-ए-जहाँ का था जहाँ तक सब समर लाया
आज़ुर्दा कुछ हैं शायद वर्ना हुज़ूर मुझ से
कहूँ कि शैख़-ए-ज़माना हूँ लाफ़ तो ये है