कहूँ कि शैख़-ए-ज़माना हूँ लाफ़ तो ये है
मैं अपने बुत का बरहमन हूँ साफ़ तो ये है
Jaun Eliya
Mir Taqi Mir
Ahmad Faraz
Allama Iqbal
Faiz Ahmad Faiz
Parveen Shakir
Anwar Masood
Gulzar
Rahat Indori
Habib Jalib
Javed Akhtar
Mohsin Naqvi
Love Poetry
Funny Poetry
Sad Poetry
Rain Poetry
Sharabi Poetry
Friends Poetry
(630) Peoples Rate This
तुझ बिन इक दल हो पास रहता है
कब इस जी की हालत कोई जानता है
जहाँ में कहाँ बाहम उल्फ़त रही है
आइना है ये जहाँ इस में जमाल अपना है
कभी हाथ भी आएगा यार सच कह
जो यूँ आप बैरून-ए-दर जाएँगे
हाजी तू तो राह को भूला मंज़िल को कोई पहुँचे है
मुझ से मुड़ने की नीं किसी रू से
करूँ क़त्-ए-उल्फ़त बुतों से व-लेकिन
बा'द-ए-मकीं मकाँ का गर बाम रहा तो क्या हुआ
महज़ूँ न हो 'हुज़ूर' अब आता है यार अपना
अश्क आँखों के अंदर न रहा है न रहेगा