हाजी तू तो राह को भूला मंज़िल को कोई पहुँचे है
दिल सा क़िबला छोड़ के तू ने का'बे का एहराम किया
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यूँ तो दिल हर कदाम रखता है
हर कोई अपनी फ़हम-ए-नाक़िस में
अबस घर से अपने निकाले है तू
कभी हाथ भी आएगा यार सच कह
दिल ब-अज़-काबा है याराँ जुब्बा-साई चाहिए
ग़ैर आए पीछे पा गए मुजरे का बार पहले
आबरू उल्फ़त में अगर चाहिए
इश्क़ में दर्द से है हुर्मत-ए-दिल
इश्क़ ने सामने होते ही जलाया दिल को
उस शोख़ से क्या कीजिए इज़्हार-ए-तमन्ना
जो यूँ आप बैरून-ए-दर जाएँगे