करूँ क़त्-ए-उल्फ़त बुतों से व-लेकिन
ये काफ़िर मिरा दिल नहीं मानता है
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महज़ूँ न हो 'हुज़ूर' अब आता है यार अपना
दीन ओ दुनिया का जो नहीं पाबंद
टुक देखियो ये अबरू-ए-ख़मदार वही है
मुझ से मुड़ने की नीं किसी रू से
हर शजर के तईं होता है समर से पैवंद
हाजी तू तो राह को भूला मंज़िल को कोई पहुँचे है
कभी हाथ भी आएगा यार सच कह
कहूँ कि शैख़-ए-ज़माना हूँ लाफ़ तो ये है
जब से गया है वो मिरा ईमान-ए-ज़िंदगी
आइना है ये जहाँ इस में जमाल अपना है
इश्क़ में ख़ूब नीं बहुत रोना
उस शोख़ से क्या कीजिए इज़्हार-ए-तमन्ना