कब इस जी की हालत कोई जानता है
जो जी जानता है सो जी जानता है
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महज़ूँ न हो 'हुज़ूर' अब आता है यार अपना
ऐ बहर न तू इतना उमँड चल मिरे आगे
है अफ़्सोस ऐ उम्र जाने का तेरे
आइना है ये जहाँ इस में जमाल अपना है
कहूँ कि शैख़-ए-ज़माना हूँ लाफ़ तो ये है
अश्क आँखों के अंदर न रहा है न रहेगा
उम्र गई उल्फ़त-ए-ज़र जी से इलाही न गई
जो जी चाहे है देखूँ माह-ए-नौ कहता है दिल मेरा
गुल-एज़ार और भी यूँ रखते हैं रंग और नमक
नाचार है दिल ज़ुल्फ़-ए-गिरह-गीर के आगे
गर शैख़ अज़्म-ए-मंज़िल-ए-हक़ है तो आ इधर