गर शैख़ अज़्म-ए-मंज़िल-ए-हक़ है तो आ इधर
है दिल की राह सीधी व का'बे की राह कज
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अश्क आँखों के अंदर न रहा है न रहेगा
इश्क़ ने सामने होते ही जलाया दिल को
दीन ओ दुनिया का जो नहीं पाबंद
और रब्त जिसे कुफ़्र से है या'नी बरहमन
जहाँ में कहाँ बाहम उल्फ़त रही है
तुझ बिन इक दल हो पास रहता है
मुझ से मुड़ने की नीं किसी रू से
आबरू उल्फ़त में अगर चाहिए
हाजी तू तो राह को भूला मंज़िल को कोई पहुँचे है
आँखों का ख़ुदा ही है ये आँसू की है गर मौज
जो यूँ आप बैरून-ए-दर जाएँगे
उस शोख़ से क्या कीजिए इज़्हार-ए-तमन्ना