यार गर पूछे तो कीजे कुछ अर्ज़
बात पर बात कही जाती है
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हर शजर के तईं होता है समर से पैवंद
आइना है ये जहाँ इस में जमाल अपना है
और रब्त जिसे कुफ़्र से है या'नी बरहमन
करूँ क़त्-ए-उल्फ़त बुतों से व-लेकिन
शजर बाग़-ए-जहाँ का था जहाँ तक सब समर लाया
बहार इस धूम से आई गई उम्मीद जीने की
क्या रफ़ू करने लगा है जा भी नादाँ यक तरफ़
हर कोई अपनी फ़हम-ए-नाक़िस में
आँखों का ख़ुदा ही है ये आँसू की है गर मौज
जो यूँ आप बैरून-ए-दर जाएँगे
अश्क आँखों के अंदर न रहा है न रहेगा
ग़ैर आए पीछे पा गए मुजरे का बार पहले