मर Poetry (page 18)

एक ज़ाती नज़्म

ग़ुलाम मोहम्मद क़ासिर

तुझे कल ही से नहीं बे-कली न कुछ आज ही से रहा क़लक़

ग़ुलाम मौला क़लक़

न पहुँचे हाथ जिस का ज़ोफ़ से ता-ज़ीस्त दामन तक

ग़ुलाम मौला क़लक़

क्या आ के जहाँ में कर गए हम

ग़ुलाम मौला क़लक़

हो जुदा ऐ चारा-गर है मुझ को आज़ार-ए-फ़िराक़

ग़ुलाम मौला क़लक़

हर अदावत की इब्तिदा है इश्क़

ग़ुलाम मौला क़लक़

जाते हैं वहाँ से गर कहीं हम

ग़ज़नफ़र अली ग़ज़नफ़र

ये तमन्ना नहीं कि मर जाएँ

ग़ज़नफ़र

कैसा होगा देस पिया का कैसा पिया का गाँव रे

ग़ौस सीवानी

ज़िंदगी में तो वो महफ़िल से उठा देते थे

ग़ालिब

तेशे बग़ैर मर न सका कोहकन 'असद'

ग़ालिब

तिरे वादे पर जिए हम तो ये जान झूट जाना

ग़ालिब

इस सादगी पे कौन न मर जाए ऐ ख़ुदा

ग़ालिब

हुई मुद्दत कि 'ग़ालिब' मर गया पर याद आता है

ग़ालिब

हुए मर के हम जो रुस्वा हुए क्यूँ न ग़र्क़-ए-दरिया

ग़ालिब

हर इक मकान को है मकीं से शरफ़ 'असद'

ग़ालिब

ये न थी हमारी क़िस्मत कि विसाल-ए-यार होता

ग़ालिब

सर-गश्तगी में आलम-ए-हस्ती से यास है

ग़ालिब

सफ़ा-ए-हैरत-ए-आईना है सामान-ए-ज़ंग आख़िर

ग़ालिब

सादगी पर उस की मर जाने की हसरत दिल में है

ग़ालिब

रहिए अब ऐसी जगह चल कर जहाँ कोई न हो

ग़ालिब

न था कुछ तो ख़ुदा था कुछ न होता तो ख़ुदा होता

ग़ालिब

जुज़ क़ैस और कोई न आया ब-रू-ए-कार

ग़ालिब

इश्क़ तासीर से नौमीद नहीं

ग़ालिब

है किस क़दर हलाक-ए-फ़रेब-ए-वफ़ा-ए-गुल

ग़ालिब

दीवानगी से दोश पे ज़ुन्नार भी नहीं

ग़ालिब

धमकी में मर गया जो न बाब-ए-नबर्द था

ग़ालिब

दहर में नक़्श-ए-वफ़ा वजह-ए-तसल्ली न हुआ

ग़ालिब

बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल है दुनिया मिरे आगे

ग़ालिब

बाग़ पा कर ख़फ़क़ानी ये डराता है मुझे

ग़ालिब

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