पर्दा Poetry (page 10)

जिस जा नसीम शाना-कश-ए-ज़ुल्फ़-ए-यार है

ग़ालिब

हम रश्क को अपने भी गवारा नहीं करते

ग़ालिब

हम पर जफ़ा से तर्क-ए-वफ़ा का गुमाँ नहीं

ग़ालिब

हासिल से हाथ धो बैठ ऐ आरज़ू-ख़िरामी

ग़ालिब

गर ख़ामुशी से फ़ाएदा इख़्फ़ा-ए-हाल है

ग़ालिब

दिल से तिरी निगाह जिगर तक उतर गई

ग़ालिब

देखना क़िस्मत कि आप अपने पे रश्क आ जाए है

ग़ालिब

देख कर दर-पर्दा गर्म-ए-दामन-अफ़्शानी मुझे

ग़ालिब

दर्द से मेरे है तुझ को बे-क़रारी हाए हाए

ग़ालिब

चाहिए अच्छों को जितना चाहिए

ग़ालिब

इस बात को वैसे तो छुपाया न गया है

गौतम राजऋषि

दामन-ए-हुस्न में हर अश्क-ए-तमन्ना रख दो

फ़ितरत अंसारी

जुदाई

फ़िराक़ गोरखपुरी

मय-कदे में आज इक दुनिया को इज़्न-ए-आम था

फ़िराक़ गोरखपुरी

हिज्र-ओ-विसाल-ए-यार का पर्दा उठा दिया

फ़िराक़ गोरखपुरी

दीदार में इक-तरफ़ा दीदार नज़र आया

फ़िराक़ गोरखपुरी

आई है कुछ न पूछ क़यामत कहाँ कहाँ

फ़िराक़ गोरखपुरी

इधर भी देख ज़रा बे-क़रार हम भी हैं

फ़ज़ल हुसैन साबिर

ग़ज़ल के पर्दे में बे-पर्दा ख़्वाहिशें लिखना

फ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी

ग़ज़ल के पर्दे में बे-पर्दा ख़्वाहिशें लिखना

फ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी

होने वाला था इक हादसा रह गया

फ़ारूक़ शफ़क़

कभी बे-नियाज़-ए-मख़्ज़न कभी दुश्मन-ए-किनारा

फ़ारूक़ बाँसपारी

उस के होंटों पे बद-दुआ' भी नहीं

फ़ारूक़ बख़्शी

तेरी ख़ातिर ये फ़ुसूँ हम ने जगा रक्खा है

फ़ारिग़ बुख़ारी

कुछ नहीं गरचे तिरी राहगुज़र से आगे

फ़ारिग़ बुख़ारी

बिछड़े घर का साया

फ़रहत एहसास

तेरे सूरज को तिरी शाम से पहचानते हैं

फ़रहत एहसास

ख़त बहुत उस के पढ़े हैं कभी देखा नहीं है

फ़रहत एहसास

बुझ गए सारे चराग़-ए-जिस्म-ओ-जाँ तब दिल जला

फ़रहत एहसास

नाम बदनाम है नाहक़ शब-ए-तन्हाई का

फ़ानी बदायुनी

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